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आरम्भ

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युगल रूप की छटा मनोहर वृन्दावन है रस का धाम. 
  नव दूल्हा-दुल्हन स्वरुप में सदा सुशोभित श्यामा-श्याम. 

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भूमिका
श्रीकृष्ण को वल्लभ-सम्प्रदाय में साक्षात परब्रह्म माना गया है. 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयं'. श्रीकृष्ण साक्षात भगवान् हैं और श्रीराधाजी उनकी चिन्मयी शक्ति हैं. अभी तक किसी ने भी उस दैवी-युगल-मूर्ति के मंगलोद्वाह की इतनी मधुर कल्पना नहीं की, जितनी मेरे प्रिय शिष्य गौरीशंकर श्रीवास्तव ने की है. हिन्दी-साहित्य में यह निश्चित रूप से अपने प्रकार की पूर्णतः मौलिक रचना है.
  प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजी ने 'श्रीजानकी-मंगल' और 'श्रीपार्वती-मंगल' की रचना करके लोकभाषा में उस दैवी शक्ति के आध्यात्मिक परिणय को लौकिक व्यवहार की भूमिका में उतारकर विकृत जनमानस का परिष्कार करते हुये विवाह में फूहड़ गीतों के बदले पवित्र मंगल -गीतों के गान की पुनीत प्रेरणा दी. उन्हीं की सात्विक प्रेरणा से विभावित होकर लेखक ने अत्यंत श्रद्धा-समन्वित भाव से चिरयुगल    श्रीराधा-कृष्ण के दिव्य परिणय की मंगल-लीला का मनोहर काव्यमय सर्जन किया है.
  भगवान् श्रीकृष्ण को 'श्रृंगार-रस' का अधिष्ठाता देवता कहा गया है. इसलिए यह स्तुत्य प्रयास किया गया है कि 'श्रृंगार-रस' के अधिष्ठाता की अधिष्ठात्री शक्ति का प्रणय सम्पन्न करके 'श्रृंगार-रस' की पूर्ण सार्थकता भगवान् श्रीकृष्ण में सिद्ध कर दी जाय. यों तो उनकी प्रणय-लीला शाश्वत है और उनकी नित्य-लीला में प्रविष्ट पुष्टजन निरंतर उस नित्य-लीला का महारस लेते ही रहते हैं, किन्तु लौकिकजन भी उस परम पावन-लीला की काव्यमयी झाँकी पाकर सद्य: तृप्त हो सकें,इस संकल्प से रची हुयी यह रचना निश्चय ही लोक-मंगल करेगी. इस विश्वास के साथ मैं इस 'श्रीराधिका-मंगल' का ह्रदय से अभिनन्दन करता हुआ कवि को बधाई देता हूँ.

- श्रीसीताराम चतुर्वेदी

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नम्र-निवेदन
भारतीय संस्कृति में नारी को अत्यंत श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखा गया है. यही कारण है कि किसी भी भारतीय नारी का नाम उसके पति के नाम से पहले लिया जाता है. जैसे- 'सीता-राम','राधा-कृष्ण',' रुक्मिणी-श्याम', 'लक्ष्मी-नारायण', 'गौरी-शंकर' आदि.
  नारी शक्ति का स्वरुप है. बिना शक्ति के ब्रह्म क्रियाहीन है.वह आदिशक्ति महामाया स्वयं ही युग-युग में अवतार लेकर नारी-जाति को कर्तव्य पथ का ज्ञान कराती है. उसके विविध लीलामय चरित्र हैं. कभी वह जगदम्बा बनकर राक्षसों का संहार करती है,तो कभी सीता व राधा बनकर महान पातिव्रत और भगवत्प्रेम का पाठ पढ़ाती है. कवियों ने उस जगज्जननी की विविध लीलाओं का जी-भरकर गुणगान किया है. महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने यद्यपि 'श्रीरामचरित मानस' में भगवान् शंकर एवं भगवान् राम के विवाह का पूर्णरूप से वर्णन किया, तथापि क्रमश: भगवान् की आह्लादिनी-शक्ति श्रीपार्वती व श्रीजानकी के मंगलमय नामों से 'श्रीपार्वती-मंगल' और 'श्रीजानकी-मंगल' की पृथक रचना कर विवाह में शक्ति-महिमा या नारी-महिमा का गान किया. वस्तुत: उन पूज्यपाद गोस्वामीजी से प्रेरणा प्राप्तकर इस परम पावन काव्य 'श्रीराधिका-मंगल' की रचना की गयी है.
  श्रीकृष्ण परिपूर्णतम ब्रह्म हैं एवं श्रीराधिका उनसे सर्वथा अभिन्न उनकी आत्मस्वरूपा आह्लादिनी-शक्ति. दोनों एक ही तत्व के दो नाम व रूप हैं,नित्य-दम्पति हैं, परन्तु धराधाम पर अवतरित होने पर यहाँ भी दोनों का शास्त्रदृष्टि से परिणय होकर अविच्छिन्न सम्बन्ध बना रहे, यह परम आवश्यक है. विधाता के मन में लालसा जगी और उन नित्य-दम्पति भगवान् श्रीराधा-कृष्ण की विवाह-लीला सम्पन्न हुयी.
  पुराण-साहित्य में 'ब्रह्मवैवर्त-पुराण' में भगवान् श्रीराधा-कृष्ण की परम मंगलमयी विवाह-लीला का वर्णन सांगोपांग रूप में किया गया है. वैष्णवों के सम्मान्य ग्रन्थ 'गर्गसंहिता' में भी श्रीयुगल के विवाह की बात आती है. संस्कृत के अनेक ग्रन्थ इस लीला का गान कर चुके हैं. महाकवि जयदेव के 'गीतगोविन्द' का मंगलाचरण भी भगवान् की इसी पवित्र-लीला की ओर संकेत करता है. हिन्दी-साहित्य में भी श्रीकृष्ण-भक्तों ने इस लीला का सुन्दर गान किया है. भक्तकवि सूरदास के 'सूरसागर' में भगवान् श्रीराधा-माधव की परिणय-लीला की आनन्ददायक लहरें हिलोरें लेती हैं.
  यहाँ पर 'श्रीराधिका-मंगल' की कथावस्तु मुख्यत: 'पद्मपुराण', 'गर्गसंहिता', 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' एवं 'देवीभागवत' से ली गयी है. आशा है, हिन्दी-साहित्य निःसंदेह इसका योगदान स्वीकार करेगा और भारतीय जनमानस इससे अवश्यमेव लाभान्वित होगी.
  अपने परम श्रद्धेय गुरुवर साहित्याचार्य पंडित श्रीसीताराम चतुर्वेदीजी का मैं ह्रदय से कृतज्ञ हूँ जिन्होंने स्नेहपूर्वक 'श्रीराधिका-मंगल' की भूमिका लिखने की कृपा की. कदाचित, यह ईश्वर का आशीर्वाद ही है कि इस पवित्र-कार्य को पूर्ण करने में मुझे मेरी धर्मपत्नी का सानिध्य व सहयोग प्राप्त रहा. अंत में, हम भगवान् की वस्तु भगवान् को ही भक्तिपूर्वक समर्पित करते हैं-
" त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुम्यमेव समर्पये "

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