(५६)
महादिव्य ऐश्वर्य-विभूषित,
होगा चरण-कमल-श्रृंगार,
इतना सुन बोलीं ब्रजदेवी,
लेकर मन में अनुपम-प्यार.
अर्थ मुझे इसका समझा दो,
मेरे प्राणेश्वर, भगवान् !
बोले प्रभु गम्भीर भाव से-
सुनो अर्थ तुम देकर ध्यान.
(५७)
जो चाहे ऐश्वर्य महासुख,
जग में हो नित उसका मान,
मूर्ति-रूप में इन चरणों की,
नित्य करे पूजा और ध्यान.
इस जग में सुख भोग सभी वह,
पहुँचेगा गोलोक के द्वार,
छूटेगा भव-बन्धन उसका,
मिट जायेंगे सभी विकार.
(५८)
जगत पितामह ब्रम्हा ने भी,
एकबार यह ठान लिया,
चरण-वन्दना के विचार से,
युगों-युगों तक ध्यान किया.
पहुँचे पुष्कर-क्षेत्र विधाता,
किया कठिन तप का आरम्भ,
बीते साठ सहस्त्र वर्ष जब,
मिटा ब्रह्म होने का दम्भ.
(५९)
मन की निर्मलता ने उनकी,
मुझको ऐसा मोह लिया,
अविलम्ब हो पूर्ण कामना-
मैंने यह वरदान दिया.
हर्षित मन से हो प्रसन्न,
वे चले गये फिर अपने लोक,
ज्ञात उन्हें चरणों की महिमा,
जिनसे मिट जाते सब शोक.
(६०)
इतना कह राधा के श्याम ने,
चरणों का श्रृंगार किया,
प्रेमभाव से उन्हें निहारा,
प्रश्न पूछ आनन्द लिया.
उठो प्रिये ! देखो दर्पण में,
अपना यह सौंदर्य महान,
तनिक कहीं भी त्रुटि मिले तो,
मुझे करा दो उसका भान.
(६१)
अधरों पर मुस्कान लिये-
दर्पण में राधा ने देखा,
देख स्वयं की अद्भुत शोभा,
हुयी प्रबल स्नेह रेखा.
मुग्ध हो रही मैं अपने पर,
धन्य-धन्य हो नटनागर,
सिद्धहस्त हो राधा कहती,
त्रिभुवन में तुम सुखसागर.
(६२)
लेकर अपने कर-कमलों में,
प्राणप्रिया का हस्त-कमल,
रोमान्चित हो गये श्यामघन,
भर आया नयनों में जल.
सकल कला की जननी हो तुम,
मेरे प्राणों की रानी !
मिली मुझे प्रेरणा कला की,
तुमसे ही हे कल्याणी !!